Saturday, February 2, 2013

सामाजिक मीडिया और लोकविद्या ताना-बाना

मुंबई वार्ता के लिए तैयार किये गए बिन्दुओं में से एक बिंदु यह है कि "लोगों के उन आपसी संबंधों का ताना-बाना जिनकी मध्यस्थता पूँजी, विश्वविद्यालय या सत्ता के प्रतिष्ठानों द्वारा नहीं होती, उसे लोकविद्या ताना-बाना कहते है।"
पहली नज़र में ऐसा प्रतीत होता है कि पूँजी, साइंस (यूनिवर्सिटी) और सत्ता की मध्यस्थता-रहित समाज में कोई स्थान है ही नहीं! ख़ास कर कला और मीडिया की दुनिया तो पूर्णतः पूंजी और सत्ता की गिरफ्त में नज़र आती है। संगीत, नृत्य, शेर-ओ-शायरी, सिनेमा, नाटक, हर माध्यम में बाज़ार और पूँजी का वर्चस्व दिखाई पड़ता है। "पारंपारिक कला" के नाम पर पूँजी और सत्ता (और सामाजिक विज्ञान के रूप में विश्वविद्यालय भी) लोकविद्या ताना-बाना को या तो बाजारी रिश्तों में परिवर्तित कर रहे हैं या उसे अपने सन्दर्भ से रिक्त कर, "आधुनिक" दर्शन की कसौटी पर परख रहे हैं। हाँ, यह कोई नयी बात तो नहीं है। लेकिन सूचना क्रांति के बाद, और ज्ञान-आधारित समाज के गठन के तहत, यह प्रक्रिया और तेज़ हो गयी है। 
लेकिन हमारी यह समझ है कि इस प्रक्रिया में भी एक अन्तर्विरोध है। वही सामाजिक ताक़तें जो लोकविद्या का शोषण कर रही हैं, लोकाविद्याधर समाज के बाहर स्थित लोगों में लोकविद्या का अस्तित्व उजागार करती हैं और लोकाविद्याधर समाज को अपनी ताक़त का एहसास दिलाती हैं। लोकविद्या जन आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण कार्य है इस अन्तर्विरोध का फायदा उठाना और लोकविद्या को "पारम्पारिक कला" के दर्जे से उठा कर लोकविद्या ताना-बाना के रूप में सामने लाना।  
यह कार्य कैसे हो, इसका सुराग मुंबई वार्ता के लिए तैयार किये गए इस बिंदु से मिलता है:

"सामाजिक मीडिया के विस्तार के साथ एक नए दर्शन और नयी राजनीति का उदय हो रहा है। ये दर्शन और राजनीति तब तक एकांगी रहेंगे जब तक लोकविद्या ताना-बाना को सामाजिक मीडिया का हिस्सा नहीं माना जाता।"


बल्कि हम यह भी कह सकते हैं की वेब 2.0 से जुड़े तमाम प्लेटफार्म (जैसे ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, आदि) जो नेट की दुनिया में ज़बरदस्त उथल-पुथल ला रहे हैं, दर्शन के स्तर पर लोकविद्या ताना-बाना को वर्चुअल दुनिया में स्थापित करने की कोशिश करते हैं। वेब 2.0 से पहले का मीडिया जगत, जैसा कि सब जानते हैं, बहुत एक-तरफ़ा था। वर्टिकल कनेक्टिविटी ज्यादा थी, हॉरिजॉन्टल बहुत कम। लोगों द्वारा निर्मित और लोगों के बीच सीधे पहुँचने वाली कलाकृतियाँ, जो लोकविद्या ताना-बाना की पहचान है, इन्टरनेट की दुनिया में वेब 2.0 और सोशल मीडिया के बाद आईं।  
चूँकि पाश्चात्य जगत में पूँजीवाद ने लगातार लोगों के बीच के संबंधों को बाजारी रूप दिया, इन्टरनेट ने जो ऐसे संबंधों से दूर थोडी-बहुत जगह बनाई हैं, उसे बहुत सहेजा जा रहा है। लेकिन जहाँ एक तरफ सूचना संपत्ति के दायरे से मुक्त हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ कंपनिया उसे फिर कैद करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही हैं। जैसे हाल ही में हुए एरन स्वार्त्ज़ के मसले कोई ही लें। एरन एक 26 वर्षीय नौजवान था जो सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ इन्टरनेट सेंसरशिप के खिलाफ लड़ रहा था। 14 साल के उम्र में एरन ने RSS feed बनाने में योगदान किया था। JSTOR नामक इन्टरनेट लाइब्रेरी से लाखों लेख डाऊनलोड करने के जुर्म में अमरीकी Computer Fraud and Abuse Act (CFAA) के तहत उसे 35 साल जेल में डालने की धमकी दी गयी। कानून और वकीलों से तंग आ कर आखिर इस 26 वर्षीय युवक ने अपनी जान दे दी। एरन स्वार्त्ज़ के केस से यह मालूम होता है कि सोशल मीडिया की दुनिया में जो भी सम्बन्ध लोग पूँजी की मध्यस्थता के बगैर बनाना चाहें, वे लगातार खतरे में हैं।
कम-से-कम लोकाविद्याधर समाज में ऐसी कई जगहें अभी मौजूद हैं, जहाँ से लोकविद्या ताना-बाना का कार्य आगे बढाया जा सकता है। इंदौर में आयोजित कबीरवाणी का कार्यक्रम इसका उदाहरण है। लेकिन यहाँ भी सत्ता की नज़र बहुत दूर नहीं है। जैसे पुणे स्थित कबीर कला मंच को ले लीजिए। इस मंच से जुड़े युवक-युवती  दलित और शोषित वर्गों से आते हैं और लोक-हित की बात करते हैं। लोक-नाट्य और संगीत के माध्यम से महाराष्ट्र के गाँव-गाँव में जा कर इस कला मंडली ने लोगों के बीच काम किया है। मगर इन कलाकारों को "नक्सल" होने के बहाने महाराष्ट्र सरकार ने गिरफ्तार करने की धमकी दी और यह तमाम युवा अब अंडरग्राऊंड हो गए हैं। झारखण्ड से आनेवाले लोक कलाकार, जीतन मरांडी का भी ऐसा ही हाल हुआ। 
लोकविद्या जन आन्दोलन के तहत इस ताना-बाना कार्यक्रम का एक लक्ष्य यह हो सकता है कि देश के विभिन प्रान्तों में फैले कबीर कला मंच और जीतन मरांडी जैसी मंडलियों और कलाकारों के बीच लोकविद्या का विचार ले जाना।


अमित बसोले

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