Tuesday, May 27, 2014

जन संघर्षों में एकता की पहल : 7 - 8 जून 2014, विद्या आश्रम, वाराणसी

2014 लोकसभा चुनाव : नई चुनौतियां, नए मौके 

7 - 8 जून 2014 को वाराणसी में जन संघर्षों की एक बैठक का आयोजन है, जिसमें प्रमुखरूप से अभी संपन्न हुए चुनाव से जन संघर्षों को क्या सीख लेनी चाहिए इस पर चर्चा की जाएगी।  विमर्श  के लिए निम्नलिखित तीन बिंदु प्रस्तावित हैं  -
  1. नई सरकार की संभावी नीतियां और किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, दलितों, मज़दूरों, महिलाओं और छोटे दुकानदारों पर आने वाले नए दबाव। इन समुदायों के संघर्षों के सामने चुनौतियाँ। 
  2. जन आंदोलन के काफी साथी चुनाव में खड़े थे। नतीजों को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र जन आकांक्षाओं और जनहित के समाधान का स्थान हो ही नहीं सकता? 
  3. जन संघर्षों के सामने आपसी एकता का बड़ा सवाल हमेशा से ही रहा है। वैश्वीकरण और ज्ञान आधारित समाज बनाने के इस युग में शोषित समाजों के बीच एकता के नए वैचारिक आधार सामने आये हैं। उदाहरण के लिए ' लोकविद्या ' और 'धरती माँ '  का विचार। इन विचारों तथा किन्हीं अन्य प्रस्तावित सैद्धांतिक प्रस्थापनाओं पर मंथन।       
2014 के इस लोकसभा चुनाव में मोदी और केजरीवाल वाराणसी में टकरा गये।  नतीजे स्वरुप बहुत बड़ी तादाद में बाहर से लोग इस दौर में वाराणसी आये। अधिकांश इस या  उस पार्टी के समर्थन में आये, किन्तु कुछ ऐसे समूह ज़रूर आये जो किसी के समर्थन में नही बल्कि जनता से बात करने, उनकी सुनने और अपनी कहने के लिये आये। बाहर के लोगों के आने के पहले से वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ता जन आन्दोलनों की स्वतंत्र दृष्टि सामने लाने के लिये कार्यरत थे।  वाराणसी के लगभग 25 समूहों द्वारा एक संयुक्त पर्चा 2014 के आम चुनाव के मौके पर : वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं का देश से निवेदन ' इस शीर्षक के साथ निक़ाला गया थाइन लोगों ने बाहर से आये कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर एक व्यापक आपसी विमर्श बनाया। 6 मई से 10  मई के बीच कई बैठकें की गईं। वाराणसी के कार्यकर्ता और बाहर से आये समूहों के कार्यकर्ता चुनावों के सन्दर्भ में दिन भर गावों और बस्तियों व अन्य स्थानों पर अपना काम करने के बाद शाम को 8 बजे गंगा जी के किनारे किसी एक घाट पर एकत्र हो कर आपस में चर्चा  करते थे, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने और आपस में सहयोग के रास्ते खोजते थे। इन बैठकों में सामान्यतः  60 - 65 कार्यकर्ता शामिल होते थे।  लोकविद्या जन आंदोलन और संघर्ष 2014 की पहल पर आयोजित बैठकों में कई स्थानों से आये संगठनों की भागीदारी रही।  

बैठकों में सामान्य मत यह रहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां और ख़राब ही होने वाली हैं। किसानों , कारीगरों , आदिवासियोँ, छोटे-छोटे दुकानदारों , मज़दूरों और सामान्य महिलाओं की ज़िंदगी की कठिनाइयाँ बढ़ने ही वाली हैँ , उनके संघर्ष  भी बढ़ने वाले हैं।  ऎसी स्थिति में यहाँ एकत्रित कार्यकर्ताओँ को अपने आगे के कामों के बारे में भी आपस में बात करना चाहिए।  

10 मई को विद्या आश्रम, सारनाथ में बैठ कर आगे के बारे में बात की गयी । एक बार फिर लोगों ने वर्तमान परिस्थिति और संघर्षो के शक्ति संग्रह पर अपने विचार रखे तथा चुनावों के बाद बनारस में एक ऐसी बैठक करने की बात की जिसमें इस क्षेत्र के संघर्षशील समूह भाग लें। यह तय किया गया कि किसानों, आदिवासियोँ, कारीगरोँ , दलितों, मज़दूरों, महिलाओं और छोटे दुकानदारों के संघर्षों में आपसी सहयोग तथा इन समाजों के बीच एकता के वैचारिक आधार यह इस समागम का विषय हों। 

इस पर सहमति बनी कि यह समागम विद्या आश्रम, सारनाथ में 7 - 8 जून 2014 को हो।  20 मई को विद्या आश्रम पर इसकी एक तैयारी बैठक रखी गयी।  
20 मई की बैठक में प्रमुखरूप से लोकविद्या जन आंदोलन और संघर्ष 2014 के लोग शामिल हुए।  हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव पर सभी ने अपनी समझ सामने रखी और 7 - 8 जून 2014 की इस बैठक के विचार को अंतिम रूप दिया।  

बैठक का स्थान : विद्या आश्रम , सा 10 /82 ए , अशोक मार्ग , सारनाथ , वाराणसी 
दिन व समय : 7 जून की सुबह 10 बजे से 8 जून को शाम 4 बजे तक 

आप इस बैठक में अवश्य आएं।  रहने-खाने की व्यवस्थाएं आयोजकों द्वारा की जाएँगी।  

लोकविद्या जन आंदोलन                                                                   संघर्ष 2014 
9839275124                                                                              9999688234 

Monday, May 19, 2014

SILENT REVOLUTION: COURTESY LOKAVIDHYADHAR SAMAJ


India Inc’s memo to Narendra Modi is already ready, even before he takes oath as Prime Minister of the country. India Inc needs to be informed categorically and assertively that Sri Modi is not where he is, on his own, due to their money power; because Manmohan Singh’s UPA also had their backing in all possible ways, but UPA could never gather the numbers as BJP has done in the just bygone elections.

BJP’s thumping victory is for the singular reason that the Lokavidhyadhar samaj chose to transcend itself above all distinctions hitherto based on caste, religion, communalism versus secularism, and more importantly the doles offered by the UPA government to them. The samaj has dispatched with contempt the farcical issue of communalism versus secularism to the dustbins of the history. All this because they conscientiously chose to put their faith in Narendra Modi because of the promises that he made to them in his election speeches.

Sri Modi rightly says- keeping his ‘humility’ aside for a moment- that he credits this phenomenal victory to millions of RSS BJP and other Sangh Parivar’s outfits. Obviously then they would have been in continuous discourse with  the members of the Lokavidhyadhar samaj to explain to them the significance – the letter and spirit – of what Modi had been untiringly trying to convey to the masses during his election campaign. This live contact, in my opinion, can be the starting point for the samaj for further course of action.

Lokavidhyadhar samaj responsibility has increased many folds with such an outcome of electoral results. They need to be conscious of this historical fact that Modi is where he is only and only because of them regardless of what quantum of money was poured in to these elections by India Inc because had they not voted for Modi, the money would have gone down the drain.

Therefore, while the samaj may discover ways and means to communicate to Modi – through his karyakartas- their requirements/demands/expectations; at the same time the samaj need to understand that this is their best chance to prepare themselves for being the alternative at the Centre, in 2019, if Modi fails to deliver on his promises and more so on their requirements and demands for affording them reasonable opportunities to live dignified life based on their gyan, vigyan, hunar and associated professions. The message that has to go to Modi neat and clean is that the samaj does not want doles.

If Modi fails, the space, the void that it will create; that political space the samaj must plan to capture right from today. The capacity to transcend all divisions, distinctions and discriminations has been displayed amply by the samaj in the just concluded elections; therefore with the same hope and resolve they need to transcend all the barriers while planning to occupy the political space for putting their government in place in Delhi. They need to look within and create the self belief within the samaj that if they can be instrumental in handing out such a victory to somebody who does not necessarily represent their aspirations, they sure can do the same for their own selves.

On the other hand, the Karigar samaj, the tribals, the kisans need to plan for and organize themselves in a way to come under one umbrella and through the ‘karyakartas’ make efforts to seek appointment with Modi to place before him their requirements and demands; like India Inc will do. They trusted the karyakartas and voted for Modi; Modi gives credit to them for his landslide victory; karyakartas need extend that credit to Lokavidhyadhar samaj. In the process of trying to directly access Modi, the intent of karyakartas and their undisputed leader will emerge loud and clear. The character of intent shall form a powerful basis for the samaj to chalk out their future course of action that culminates in to a world of their thought, belief, and choosing.

If ‘karyakartas’ dodge on them; the samaj under one umbrella, in my opinion, need to take out rallies seeking direct meeting with Modi on their aspirations and their right to live with dignity and like true contributors to the socio-economic growth of our country.

The samaj need to pronounce with candour that Modi has come to power because of them and not because of India Inc. 

Lalit Kaul 
Lokavidya Jan Andoaln , Hyderabad

Wednesday, May 14, 2014

नागपुर बैठक के लिए एक और मुद्दा

नागपुर में २८ और २९ जून को होने वाली बैठक में जिन मुद्दों पर बहस होगी उनके अतिरिक्त एक और मुद्दे पर बहस अनिवार्य है। मुद्दा है : लोकविद्याधर समाज की चुनावी राजनीती में दखलअंदाजी।  वाराणसी में हो रहे सामाजिक गठबंधनों में आपसी विचार विमर्श का निष्कर्ष यदि यह है कि चुनावों के पश्चात - लोकविद्याधर समाज के परिप्रेक्ष में - परिस्थितियाँ और खराब हो जायेंगी, तो ऐसी परिस्तिथियों का सामना केवल आपसी विचार विमर्श करने और अधिकारों को मांगने से नहीं हो सकता। 

संघर्ष अपनी जगह सही है, लेकिन यदि पूरा का पूरा निज़ाम और इसके वजूद की अवधारणा ही लोकविद्याधर समाज के जीवन दर्शन के विपरीत हो तो केवल अराजनीतिक संघर्ष कहाँ तक अपनी मंज़िल हासिल करने में सक्षम हो सकता है , इस पर गंभीर रूप से विचार करने की आवश्यकता है। जो आधुनिक समाज के सक्रिय सदस्य हैं, जिनकी शोषण की व्यवस्था में पूरी भागीदारी है, उन्हें उनके जीवन में  सब कुछ बिना संघर्ष मिल जाता है, क्योंकि पूरा निज़ाम ही उनके लिए बना है। 

अधिकार मांगने से नहीं मिलते, उन्हें हासिल करना पड़ता है।  लोकविद्याधर समाज को यदि अपने अधिकार हासिल करने हैँ, तो मेरी समझ में उसे राजनितिक पहल करनी होगी। इस समाज के जीवन दर्शन को कार्यान्वित करने के लिये उसके अनुकूल व्यवस्थायें और राजनितिक विचारधारा का होना जरूरी है। 

किसान, कारीगर और आदिवासी इन सब का यह मानना या फिर इनपर यह थोपना कि वह सब को एक जुट करने की राजनीति नहीं कर सकतेयह सिर्फ एक मानसिक स्थिति है ; जो संघर्ष कर सकते हैं वह राजनीति  नहीं कर सकते यह कहाँ तक सही है, क्योंकि हर संघर्ष के पीछे एक प्रकार की राजनीति  का होना अनिवार्य है ; यदि ऐसा नहीं है तो कोई भी संघर्ष  शुरू होने से पहले हीख़त्म हो जायेगा . जो हज़ारो की गिनती में जमा   होकर अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन कर सकते है वह आपस में मिलकर अपने भविष्य को खुद तय करने की प्रक्रिया क्यों शुरू नहीं कर सकते ? बात सिर्फ निश्चय करने की हैक़ाबिलियत या नाक़ाबिलियत की नहीं। 'हम नहीं कर सकते', यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जो बिना क़ाबिलियत आजमाये खुद को नाकाबिल   घोषित करती है .

लोकविद्याधर समाज को यह तय करना होगा कि अगले पांच सालों मेंवे इसलिए प्रयतनशील रहेंगे कि उनको आने वाले संसद और विधान सभा चुनावों में खुद के प्रतिनिधि खड़े करने हैं ताकि उनकी सरकार सत्ता में  आये.   जीवन की गतिविधियों से जुडीकोई भी दार्शनिक विचारधारा तब ही कार्यान्वित हो सकती है जब उसके समर्थक सत्ता में हों.  न्याय तो तब ही मिलेगा और यदिऐसा होनेपर  भी नहीं मिला , तो कभी नहीं कहीं नहीं मिलेगा ! 

ललित कौल 
लोकविद्या जन आंदोलन , हैदराबाद   

Monday, May 12, 2014

वाराणसी के चुनाव और सामाजिक कार्यकर्ताओं की स्वतन्त्र पहल

साथियों , 

2014 के इस लोकसभा चुनाव में मोदी और केजरीवाल वाराणसी में टकरा गये।  नतीजे स्वरुप बहुत बड़ी तादाद में बाहर से लोग इस दौर में वाराणसी आये।  जबकि अधिकांश या यों कहें कि लगभग सभी इस या  उस पार्टी के समर्थन में आये,  फ़िर भी कुछ ऐसे समूह ज़रूर आये जो किसी के समर्थन में नही बल्कि जनता से बात करने, उनकी सुनने और अपनी कहने के लिये आये। बाहर के लोगों के आने के पहले से वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ता जन आन्दोलनों की स्वतंत्र दृष्टि सामने लाने के लिये कार्यरत थे।  लगभग 25 समूहों द्वारा एक संयुक्त पर्चा निक़ाला गया था 2014 के आम चुनाव के मौके पर : वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं का देश से निवेदन '. इन लोगों ने बाहर से आये कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर एक व्यापक आपसी विमर्श बनाया। 6 मई से 10  मई के बीच कई बैठकें की गईं।  यह इन बैठकों की एक संक्षिप्त रिपोर्ट है। वाराणसी के कार्यकर्ता और बाहर से आये समूहों के कार्यकर्ता चुनावों के सन्दर्भ में दिन भर गावों और बस्तियों व अन्य स्थानों पर अपने काम के बाद शाम को 8 बजे गंगा जी के किनारे किसी एक घाट पर एकत्र हो कर आपस में चर्चा  करते थे, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने और आपस में सहयोग के रास्ते खोजते थे। इन बैठकों में सामान्यतः  60 - 65 कार्यकर्ता शामिल होते थे।  
  
6 मई को भैंसासुर घाट पर , 7 मई को सिंधिया घाट, 8 मई को शिवाला घाट और 9 मई को फिर भैंसासुर घाट पर ये बैठकें हुईं ।  इन बैठकों में वाराणसी में कार्यरत समूहों की ओर से पारमिता, वल्लभ, धनञ्जय, रमन , दिलीप कुमार 'दिली' , लक्ष्मण प्रसाद , चित्रा जी, शिवमूरत, भरतलाल मांझी,  मुनीज़ा ख़ाँ, लेनिन रघुवंशी, श्रुति नागवंशी , प्रेम प्रकाश, संदीप पांडेय, चंचल, सुनील सहस्रबुद्धे, अफ़लातून, स्वाति जी, प्रेमलताजी आदि ने भाग लिया। बाहर से आये लोगों में अशोक चौधरी और विजयन के नेतृत्व में संघर्ष -2014 का एक बड़ा समूह, झारखंड की दयामनी बारला और उनका समूह, मुंबई से तीस्ता सीतलवाद  और लाल निशान पार्टी के मिलिंद रानडे और उनके साथी , दिल्ली से अरविंद गौड़  और उनका  अस्मिता कला समूह , इलाहाबाद से उत्पला और सुव्रत राजू (अब बंगलुरु ) के साथ शहरी गरीबों के बीच काम करने वाला एक समूह, प्रतिरोध का सिनेमा से मनीष, अहमदाबाद से सर्वोदय आंदोलन के ऊषा बहन और वीनूभाई, लखनऊ से राजीव और उनके साथियों इत्यादि ने भाग लिया ।  मोटे तौर पर वाराणसी, इलाहाबाद , लखनऊ, दिल्ली, मुंबई, बंगलूरू, धारवाड़, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, केरल, सिंगरौली, सोनभद्र, चित्रकूट, जौनपुर, अहमदाबाद, अहमद नगर, उत्तराखंड आदि से संगठनों और कार्यकर्ताओं की भागीदारी रही है। जगह - जगह से आये पत्रकार भी इन बैठको में आते रहे।     

संघर्ष  2014 की टीम संख्या में उपस्थित थी। भारतीय किसान यूनियन के वाराणसी ज़िला अध्यक्ष लक्ष्मण प्रसाद के साथ वे करसड़ा, मोहनसराय , डोमरी, बरईपुर आदि गांवों में होकर आये और वहाँ  के किसानों से उनके संघर्षों के बारे में विस्तृत चर्चा करके आये।  इस टीम के सदस्यों में विजयन, भार्गवी, सँतोष , लक्ष्मी , इशिता, आशिमा, अनिल, मातादयाल, मनोज, अमरजीत कुमार, श्रीराम पाल, सन्जीव आदि ने अपने अनुभव साझा किये। उन्होंने कहा कि चूँकि वे किसी  पार्टी की ओर से नही थे  इसलिए इन वार्ताओं में गॉँव वालोँ ने खुलकर अपनी बात कही।  

बैठकों में शामिल होने वाले सभी लोगों को अपनी बात कहने का मौका मिला। सबने अपने - अपने दृष्टिकोण सबके सामने रखे।  खुलकर किसी पार्टी का समर्थन करणे वाला शायद ही कोई  था। कई लोगों ने कहा कि अन्य पार्टियों और उनके नेताओं के प्रति मोदी समर्थकोँ के आक्रामक रवैये, मारपीट  की बढ़ती घटनाओं से बने माहौल से मोदी का तानाशाह और सांप्रदायिक चेहरा खुलकर सामने आया है।  गुजरात माडल और गंगाजी के लिये साबरमती के नाम पर बोले जा रहे झूठ को कुछ लोगों ने सफाई से सामने रखा।  

बैठकों में सामान्य मत यह रहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां और ख़राब ही होने वाली हैं। किसानों , कारीगरों , आदिवासियोँ, छोटे-छोटे दुकानदारों , मज़दूरों और सामान्य महिलाओं की ज़िंदगी की कठिनाइयाँ बढ़ने ही वाली हैँ , उनके संघर्ष  भी बढ़ने वाले हैं।  ऎसी स्थिति में यहाँ एकत्रित कार्यकर्ताओँ को अपने आगे के कामों के बारे में भी आपस में बात करना चाहिए।  

10 मई को विद्या आश्रम, सारनाथ में बैठ कर आगे के बारे में बात की गयी । प्रमुख रूप से अशोक चौधरी और उनके संघर्ष-2014  के साथी, राजीव और लखनऊ के साथी, लोकविद्या जन आंदोलन और साझा संस्कृति मँच के साथी शामिल थे। सबके सामने 28 - 29 जून 2014 की लोकविद्या जन आंदोलन द्वारा प्रस्तावित नागपुर बैठक का पर्चा रख दिया गया।  एक बार फिर लोगों ने वर्तमान परिस्थिति और संघर्षो के शक्ति संग्रह पर अपने विचार रखे तथा चुनावों के बाद बनारस में एक ऐसी बैठक करने की बात की जिसमें इस क्षेत्र के संघर्षशील समूह भाग लें। यह तय किया गया कि किसानों, आदिवासियोँ, कारीगरोँ , मज़दूरों, महिलाओं और छोटे दुकानदारों के संघर्षों में आपसी सहयोग तथा इन समाजों के बीच एकता के वैचारिक आधार यह इस समागम का विषय हो। 
इस पर सहमति बनी कि यह समागम दो दिन का विद्या आश्रम, सारनाथ में 7 - 8 जून 2014 को हो।  20 मई को विद्या आश्रम पर इसकी एक तैयारी बैठक रखी गयी है।  आप में से जो भी इसमें रुचि रखते हों इस तैयारी बैठक में अवश्य आएं।  

 
सुनील सहस्रबुद्धे 

Thursday, May 8, 2014

वाराणसी से समाचार

12  मई को वाराणसी में लोकसभा का  चुनाव है, जो  मोदी और केजरीवाल के आमने-सामने होने से विशेष बन गया है।  वाराणसी में एक महासंग्राम का माहौल बना  हुआ  है।  अखबार के हिसाब से 50 हज़ार भाजपा  के पक्ष में और 30 हज़ार 'आप' के पक्ष में बाहर से लोग आये हैं। कल ही मेधा पाटकर , आलोक अग्रवाल और दयामनी बारला ने भी शहर में बैठकें कीं।  इनके अलावा कई तरह के ऐसे संगठन भी आये हैं जो किन्हीं  पार्टियों के सीधे समर्थक नही हैं।  इनमें आदिवासियों , किसानों , शहर के गरीबों , महिलाओं , आदि के मुददों पर काम करने वाले  हैं , मानवाधिकार वाले हैँ और प्रगतिशील नाट्य व सिनेमा वाले  हैं। लोकविद्या जन आंदोलन ने ऐसे लोगों से सम्पर्क किया  है और आपस में वार्ता का एक दौर चलाया है।

वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल (ब्लॉग पोस्ट 18 अप्रैल 2014 ) पर शुरू की गयी प्रक्रिया को विस्तार देते हुए रोज़ रात को 8 बजे गंगाजी के किनारे किसी घाट पर एक ऐसी बैठक आयोजित की जाती है जिसमें वाराणसी के कार्यकर्ताओं के साथ बाहर से आये कार्यकर्त्ता अपने विचार , कार्य, अनुभव , स्थिति का जायज़ा  और तौर तरीके साझा करते हैं। इनमें से अधिकांश किसी पार्टी के लिये काम करने नही आये हैं। वाराणसी के बाहर से आये संगठनों और कार्यकर्ताओं के साथ बैठकों का यह सिलसिला 6  मई से भैंसासुर घाट से शुरु हुआ। कल सिंधिया घाट पर बैठक हुई। वाराणसी, इलाहबाद , दिल्ली, मुंबई , बेंगलूरू , बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ , उडिसा, सिंगरौली, सोनभद्र, चित्रकूट, जौनपुर , गुजरात, अहमद नगर, उत्तराखंड आदि से संगठनों और कार्यकर्ताओं की भागीदारी रही है। इन बैठकों में 60 - 65 लोगों की भागीदारी रहती है। वाराणसी में इस विशेष मौके पर अपने-अपने दृष्टिकोणों से समाज और जनता के हित की बातें लोगों के सामने रखने  आये हैं। ये लोग दिन भर गाँवों में, बस्तियों और बाज़ारों में अपने पर्चे बांटते हैँ व लोगों से बात करते हैं।  फिर रात में ये बैठकें उन्हें आपस में मिलने , एक दूसरे की बात सुनने और एक दूसरे के साथ सहयोग की सम्भावनायें खोजने का स्थान बनती हैं।
आज की बैठक शिवाला घाट पर है।  कल या परसों तक ये बैठकें चलेंगी। 
इन बैठकों में शामिल होने वाले ज्यादातर लोग इस ख्याल के हैँ कि चुनाव के बाद जो भी परिस्थितियां बनेंगी वे अभी की परिस्थितियोँ से और ख़राब ही होंगी इसलिए यहाँ इकट्ठा हुए कार्यकर्ताओं के बीच, आपस में सम्पर्क , सहयोग और साझा कार्यक्रमों की ओर कैसे बढ़ेंगे, इस पर बात शुरु हो जानी  चाहिए।  आशा है कि कल तक ये बातें शुरु हो जाएँगी।  जन आंदोलनों के नेताओं में से बडी तादाद में 'आप' के टिकट पर चुनाव लड़े जाने की यह परिस्थिति एकदम  नई है, उतनी ही नई जितनी  'आप' खुद।  चर्चा में ये बातें आना  शुरू हो गयी हैं कि संघर्षों और समाजों के बीच समन्वय और एकता के कार्य संगठन और विचारधारा दोनो ही के स्तर पर इजाफे की मांग कर रहे हैं।  
इन सारी बातों को 28 - 29 जून की नागपुर की  प्रस्तावित बैठक (ब्लॉग पोस्ट 2 मई 2014 ) के सन्दर्भ में देखा जाये तो और सोचने के रास्ते खुलते हैं।  

चित्रा सहस्रबुद्धे 
विद्या आश्रम 

Monday, May 5, 2014

जनाब, लोकविद्या समाज वाले सरकारी कर्मचारी से ज्यादा के हक़दार हैँ

जून अन्त की नागपुर की बैठक सही दिशा में है.

सरकारी कार्यालय में एक चपरासी का क्या काम है? कुछ कागजात यहाँ से वहाँ  ले जाना, अफसरों के लिए चाय पानी लाना या फिर अफसरों के लिए कुछ ऐसा बंदोबस्त करना जो खुले आम नहीं किया जा सकता ! इस प्रकार के कार्यों में किसी खास विद्या या हुनर की जरूरत नहीं है।  चपरासी का वेतन लगभग 15000 रूपये होगा।  एक किसान जो कृषि करता है , बुनकर जो कपडा बुनता है , लोहार और बढ़ई ( तरखान ) जो सामान बनाते हैं , फुटकर का व्यवसाय करने वाले , आदि ; इन सब के कार्यों में विद्या और हुनर की जरूरत होती है।  इसलिए इनका न्यूनतम वेतन चपरासी के वेतन से अधिक होना चाहिये।

कारीगर कच्चे माल और अन्य पदार्थों का प्रबंध करके कई हाथ जुटा कर पक्के माल को निर्मित करते हैं।  यह हर जरूरी यंत्र वस्तु आदि का खुद प्रबन्ध करते हैं और प्रबन्धकर्ता का कार्य भी खुद ही करते हैं।  इसलिए इनका न्यूनतम वेतन किसी भी सरकारी कार्यालय के प्रबन्धक  के बराबर का होना चाहिए।  इनकी एक और विशेषता यह है कि यह प्रबन्धकर्ता की विद्या किसी विशेष विद्यालय से हासिल नहीं करते बल्कि अपने अपने जीवन के संघर्ष से सीखते हैं।  इनका विद्या हासिल करने का ढंग ऐसा है कि किसी दूसरे पर कोई लागत नहीं आती।  ऐसे बिना किसी पर  बोझ  बने यह विद्या सीखते हैं जिसकी पूर्ति इन्हे होनी चाहिए।  इसलिए इनका वेतन सरकारी संस्था के प्रबंधक  से अधिक होना चाहिए।

मै इस बात से पूरी  तरह से सहमत हूँ कि " नया समाज गढ़ने के विचार की शुरुवात विकास की अवधारणा और भाषा को त्याग कर तथा आम लोगों की क्षमताओं , उनके शक्ति के स्थानों और ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करके एक नये सिरे से होनी होगी "

ललित कौल
लोकविद्या जन आंदोलन, हैदराबाद 

Friday, May 2, 2014

जन-आंदोलनों और लोकविद्या समाज संगठनों की बैठक - नागपुर , 28-29 जून 2014

पिछले डेढ़-दो महीनों से देश में आम चुनावों की हवा चल रही है।  वही दो पुराने राजनैतिक गठबंधन फ़िर एक बार एक दूसरे के मुकाबले मैदान में हैँ।  कई जगह क्षेत्रीय दल भी सक्रिय हैँ।  इसी दौरान प्रारम्भ में इन सबसे अलग लगने वाला एक राजनैतिक बवंडर दिल्ली  के चुनाव , सरकार की स्थापना और फ़िर इस्तीफ़ा जैसी नाटकीय घटनाओं के रूप में देश में उठा।  जिस तेज़ी से यह लहर उठी और फैली उससे और कुछ नही तो यह स्पष्ट हुआ कि आम लोग प्रस्थापित राजनीति से पूर्णतया  ऊब चुके हैं।  लेकिन आम लोगों की दृष्टि से अब इस लहर की दिशाहीनता साफ़ दिखाई दे रही है।  वे अपने आप को अजीब सी कैंची में फंसा हुए पा रहे हैं।  एक तरफ से कार्पोरेट दुनिया के लिये पोषक वर्तमान व्यवस्था को ही भ्रष्टाचार मुक्त रूप में चलाने की न समझ में आने वाली घोषणाएं सुनाई दे रही हैं , तो दूसरी ओर यही व्यवस्था सक्षम तरीके से चलाने के सामर्थ्य की घोषणाओं के रूप में इसी भ्रष्टाचार का खुले आम समर्थन देखने को मिल रहा  है।

चुनावों के नतीजे जो भी निकलें  , वर्ष 1990, और वर्ष 2000 से और अधिक तेज़ी से , घटती जनांदोलनों की ताकत फ़िर से किस तरह बढ़ाई जा सकेगी , यह मूल प्रश्न है।  भ्रष्टाचार का सीमित अर्थ लगाने वाली , मौलिक आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर बात करने से कतराने वाली तथा शोषित समाज और समाज  निर्माण  में उसकी महत्तम अग्रणी भूमिका से दूर हटकर किसी खोखली काल्पनिक निष्कलंकित प्रशासकीय व्यवस्था की बात करने वाली 'आप ' पार्टी जन-आंदोलनों को कैसे आकर्षित कर सकती है ? आरम्भ के दौर में लोगों का  घोषणा पत्र , लोगों का उम्मीदवार और स्वराज्य की बातें करने वाली 'आप ' पार्टी चुनावी माहौल में इन आग्रहों को भुला देती है , इसे कैसे नज़र-अंदाज़ किया जा सकता  है ?  लोगों के हित में अपना सब कुछ समर्पित करने वाले  जन-आंदोलनों के कार्यकर्ता अगर ऐसा कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि वैचारिक रूप में ये जन-आंदोलन थकान सी महसूस कर रहे हैं , और लोगों के सामने भावी समाज का एक स्वस्थ प्रारुप पेश करने में अपने आप को असमर्थ पा रहे हैं।  साथ ही सभी यह महसूस कर रहे हैं कि लोगों के सवालों पर नये सिरे से आपसी विचार विमर्श और नये सिरे से इन सवालों को सामने ऱखने की आवश्यकता है।

क्या यह सच नहीं  कि आम लोगों के सवालों को लेकर जो विचार सामने आते रहे हैं वे 'विकास ' की अवधारणा में लिपट कर कुंठित हो गये हैं ? इस अवधारणा पर भले ही कई प्रकार के मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , छोटे-मोटे से लेकर सारे राष्ट्रीय राजनैतिक दल भी विकास की ही बात करते आये हैं , और आज भी कर रहे हैं। साथ ही सारे आंदोलनकारी संगठन भी, मानवतावादी दृष्टिकोण के मोड़ के साथ ही क्यों न हो , 'विकास' की अवधारणा के आधार पर ही अपनी बात रखते हैं। ' विकास ' के दृष्टिकोण में दो बातें हमेशा ही केन्द्र स्थान छेके रहती हैँ।  इसमें से एक है लोगों की गरीबी , उनकी मज़बूरी , उनका  ' अनाड़ीपन ' , और इस सबसे उत्पन्न ' नाकारा ' पन और 'नाक़ाबिलियत'। दूसरी है, ऐसे 'सामर्थ्यहीन ' लोगों का बाहर से विकास।  'विकास' की अवधारणा लोगों का  सामर्थ्य , उनकी क्षमताएं और उनके पास निहित ज्ञान  को पूरी  तरह से नकारती है।जो लोग और समाज सर्वथा विपरीत नीतिगत और प्रशासकीय स्थितियों के बावजूद, मात्र अपनी निहित क्षमताओं और ज्ञान के बल पर अपना जीवनयापन करते आये हैं , उनकी दृष्टि में विकास की अवधरणा क्या एक विनाशकारी आडम्बर से अधिक कुछ है, या हो सकती है ? पिछले कुछ दशकों की घटनाओं ने इस आडम्बर का साफ़तौर पर पर्दाफाश किया  है।

यह निर्विवाद है कि लोगों के सवालों के  हल और साथ ही समता पर आधारित स्वस्थ और संवेदनशील समाज का  निर्माण किसी व्यापक जन आंदोलन के चलते ही हो सकता  है।  इसीलिये यह ज़रूरी है कि नया समाज गढ़ने के विचार की शुरुआत विकास की अवधारणा और भाषा को त्यागकर तथा आम लोगों की क्षमताओं , उनके शक्ति के स्थानोँ और ज्ञान पर ध्यान केन्द्रित करके एक नये सिरे से होनी होगी।

इस सन्दर्भ में लोकविद्या जन आंदोलन की पहल से नागपुर में 28 -29 जून 2014 को लोगों के आंदोलन करने वाले जन-संगठन और किसानों , आदिवासियों , कारीगरों , दलितोँ , महिलाओं तथा छोटे दुकानदारों के संगठनों की बैठक का आयोजन किया गया है।  इस बैठक में ऊपर रखी गयी बातोँ को लेकर जन-आंदोलन का वैचारिक आधार नये सिरे से व्यवस्थित करने पर विचार किया जाएगा।

इसके साथ बैठक के दूसरे दिन लोगों के पास के ज्ञान और उस पर आधारित उनकी क्षमताओं पर ध्यान  केन्द्रित करने के लिये दो बातों पर विचार कर आन्दोलन का कार्यक्रम निश्चित करने का प्रयत्न किया  जायेगा। ये दो बातें हैं -

  • हर व्यक्ति के लिये उसके अपने ज्ञान  के बल पर कम से कम उस आय की गारंटी हो जो विभिन्न वेतन आयोग संगठित क्षेत्र के लिये न्यूनतम वेतन के रूप में तय करते हैं।   
  • तथाकथित प्रगतिशील विज्ञान और तकनीकी , अर्थशास्त्र और प्रबन्धन शास्त्र के नाम पर किये जाने वाले राष्ट्रीय संसाधनों के सर्वथा विषम वितरण को तुरन्त रोक कर शिक्षा , स्वास्थ्य , बिजली , पानी और वित्त इन सभी संसाधनों का बराबर का बंटवारा हो।  


विजय जावंधिया , गिरीश सहस्रबुद्धे , विलास भोंगाडे
 लोकविद्या जन आंदोलन , नागपुर

( यह मराठी पर्चे का हिंदी अनुवाद है। )

Thursday, May 1, 2014

30 अप्रैल विद्या आश्रम : ' किसान आन्दोलन और स्वराज ' एक वार्ता


विद्या आश्रम पर 30 अप्रैल की दोपहर को ' स्वराज ' के अर्थ पर किसान आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने विस्तृत चर्चा की। बोलने वालों में प्रमुख रहे वाराणासी मंडल के भारतीय किसान यूनियन (भाकियू ) के सचिव दिलीप कुमार 'दिली', हरियाणा  भाकियू के प्रांतीय अध्यक्ष गुरुनाम सिंह, भारतीय किसान उत्कर्ष समिति, कर्नाटक के प्रांतीय संयोजक हेमंत कुमार , लोकविद्या जन आंदोलन की राष्ट्रीय संयोजक डा. चित्रा सहस्रबुद्धे, भाकियू के वाराणसी जिला अध्यक्ष लक्ष्मण प्रसाद मौर्य , ग्राम बरईपुर सारनाथ संघर्ष समिति की संयोजक राधा देवी, ग़ाज़ीपुर के भाकियू के वरिष्ठ नेता बाबूलाल मानव, सीटू के प्रान्तीय सचिव प्रेमनाथ, लोकविद्या भाईचारा विदयालय के संयोजक शिवमूरत मास्टर साहब , सर्वोदय आन्दोलन  के अरुण कुमार , काशी  विद्यापीठ के प्रो. रमन , वरिष्ठ वाम विचारक शिव प्रसन्न कुशवाहा और लोकविद्या विचारक  सुनील सहस्रबुद्धे।  
सभी ने ठोस किसान संघर्षों और व्यापक किसान आंदोलन के सन्दर्भ में अपनी बातें रखीं। विचार के स्तर पर प्रमुख रूप से यह बात हुई कि किस तरह अभी तक के आन्दोलन की मांगें , संघर्ष के तरीके और वैचारिक स्थापनाएं  स्वराज के एक समकालीन दर्शन का आधार देते हैं और कैसे स्वराज का दर्शन किसानों के साथ पूरे लोकविद्या समाज को एकजुट  करने के रास्ते खोलता है।  व्यावहारिक स्तर  पर किसान आंदोलन और आम आदमी पार्टी (आप ) के बीच रिश्ते के सवाल पर बहस हुई।  कई जगह किसान आंदोलन के नेता और कार्यकर्ता 'आप ' में शामिल हुए हैं और चुनाव भी लड़े हैं।  और जो बाहर हैं वे राजनीतिक पार्टियों से दूर  रहने  के अपने तर्कों पर कायम हैं।  शामिल होने वाले उन तर्कों को मानते हुए यह कह रहे हैं कि आज जैसी स्थिति पहली बार पैदा हुई है और किसानों को कुछ मिल सके इसके लिये 'आप' में शामिल होना सही है क्योंकि 'आप' ने स्वामीनाथन आयोग की रपट लागू करना और ज़मीन अधिग्रहण के प्रश्न पर किसानों कि मांग, दोनोँ को ही पूरा का पूरा  माना है।  यानि अपने सिद्धांतों से समझौता किये बगैर राजनैतिक सत्ता में दखल देने का  यह मौक़ा 40 साल पुराने इस आंदोलन को नही गँवाना चाहिए।  उपस्थित लोगों के विचार में पार्टी से अलग रहने वालों और पार्टी में जाने वालों दोनों के दृष्टिकोणों के बीच संतुलन चाहिए, ऐसा सामने आया। एक को त्यागकर पूरा का  पूरा दूसरी लाईन में चला जाना उचित नही माना गया।  

अंत में इस बात पर चर्चा  हुई कि स्वराज की दृष्टि से किसानों के साथ एकजुट होकर पूरा लोकविद्या समाज अगले 2-3 वर्षों में एक बहुत बड़ा आन्दोलन करे, इसका आधार क्या हो सकता है ? सभी एकमत थे कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुकूल आय इस देश के हर परिवार की होनी चाहिये, यही वह व्यापक आधार है।  यह बात सभी ने मानी कि तमाम आम लोग अपने ज्ञान के बल पर ही अपनी जीविका चलाते हैं और उनके ज्ञान पर आधारित काम का वही पारिश्रमिक होना चाहिए जो उच्च शिक्षित लोगों को मिलता है।  ज्ञान-ज्ञान में फर्क न करना, इसी में स्वराज की ओर बढ़ने वाले आंदोलन की नींव हो सकती  है। 

बैठक  के कुछ फोटो --




विद्या आश्रम 

वाराणसी में प्रेस वार्ता

28 अप्रैल  को वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक प्रेस वार्ता की। पराड़कर स्मृति भवन में काशी पत्रकार संघ की दीर्घा में वाराणसी के लगभग सभी अखबारों के प्रतिनिधियों से अपनी मुहिम की ओर से अमरनाथ भाई , सुनील सहस्रबुद्धे , वल्लभाचार्य पाण्डे, दीपक मलिक, दिलीप कुमार ' दिली ', डा. मुनीज़ा खान, लक्ष्मण प्रसाद , जागृति  राही, चंचल मुखर्जी और दीनदयाल ने वार्ता की।  प्रकाशित पर्चे पर आधारित एक संक्षिप्त प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी।  3-4  प्रमुख अख़बारों ने खबर को स्थान दिया। यू - ट्यूब पर भी प्रेस वार्ता का वीडियो डाला गया है जिसका लिंक नीचे है।









 पत्रकार वार्ता की क्लिपिंग्स लेकर तैयार किया वीडियो 

https://www.youtube.com/watch?v=zaT5syaKRCI&feature=youtu.be


विद्या आश्रम