Thursday, December 17, 2015

ज्ञान-पंचायतों की शक्ति को पहचानें

- विद्या आश्रम की राष्ट्रीय बैठक (27 -28 फरवरी 2016 ) में चर्चा के लिए - 
देखें ब्लॉग पोस्ट 22 सितम्बर 2015 http://lokavidyajanandolan.blogspot.in/2015/09/vidya-ashran-national-meet-27-28-feb.html

पंचायतें अनमोल हैं। लेकिन सरकारों की नीति हैं - इन्हें अर्थहीन करो,  इन्हें ख़त्म करो !

धर्म, शिक्षा प्रणाली, तकनीक, प्रबंधन की सीमाओं से परे जाकर लोकविद्या पर आधारित छोटी-छोटी पंचायतों ने मानव को निरंतर सभ्य और लोकहितपरक बनने का रास्ता दिखाया है। पंचायतें लोकविद्या-समाज के ज्ञान संसार का  एक नायाब तोहफा है।  हमारे देश में पंचायतों को समाज की राय बनाने की सबसे लोकप्रिय, न्यायिक और लोकहित साधने की सामाजिक प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है।  समाज के छोटे-छोटे समुदाय भी बिना हिचक के पंचायतों के फैसलों को अमल में ले आते हैं।

अंग्रेज़ों की नीति रही हैं की लोकविद्या-समाज के श्रम और ज्ञान को लूटना और ऐसा वे उनकी  पंचायतों को कमज़ोर कर या तोड़ कर ही कर सकते थे। सो उन्होंने इन पंचायतों को अर्थहीन बनाया , खत्म किया। आज़ादी के बाद की सरकारों की भी यही नीति रही। लोकतंत्र, प्रजातंत्र , पंचायती राज केवल नारों तक ही सीमित है। सब जानते हैं की देश की व्यवस्थाओं का नीति निर्धारण पंचायतें नहीं, बल्कि अन्य कोई शक्तियां करती हैं। यही कारण है कि लोकविद्या-समाज को सबसे ज्यादा तिरस्कार, अपमान , विस्थापन, लाचारी  और गरीबी की ज़िन्दगी जीने को मजबूर कर पाये  हैं।  लोकविद्या-समाज की पंचायतों को, ज्ञान-पंचायतों को पुनर्जीवित करने का सही समय आ गया है।

पंचायतें मरती नहीं हैं, ये लोकविद्या-समाज को ज़िंदा रखती हैं।
सामान्य जीवन कभी मरता नहीं है और लोकविद्या सामान्य जीवन में बसती है। लोकविद्या-समाज की पंचायतें  लोकविद्या पर नितनवीन  सोच गढती हैं जिससे लोग कठिनाइयों  और बाधाओं को पार कर जाते हैं। छोटे-छोटे समुदाय जीवन-मृत्यु-विवाह से लेकर सामूहिक प्रतिरोध और संघर्षों के निर्णय पंचायतों में लेते हैं।  ये लोकविद्या-समाज की ज्ञान-पंचायतें ही होती हैं।  जब आक्रामक विचारधाराओं ने इन ज्ञान-पंचायतों को मुख्यधारा से हटाया तब भी ये  मरी नहीं, लेकिन घर-मोहल्ले- बस्तियों और छोटे-छोटे गाँवों में सिमट गयी।  ये ज्ञान-पंचायतें मरी नहीं हैं।

आज सार्वजनिक जीवन को संचालित करने वाली मुख्यधारा तो बड़े-बड़े विश्वविद्यालय और ज्ञान प्रबंधन के संस्थानों से निकलकर आ रही हैं।  लेकिन यह भी सच हैं कि यही मुख्यधारा लोकविद्या-समाज की वर्तमान बदहाल स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है और लोकविद्या-समाज के करोड़ों-करोड़ों लोग आज भी अनगिनत छोटी-छोटी पंचायतें लगाकर  सोचते-विचारते हैं कि मुख्यधारा के इस आक्रमण से कैसे निपटा जाये। लोकविद्या-समाज की इन छोटी-छोटी पंचायतों को उनके ज्ञान-आधार से जोड़ने का समय आ गया है और इन्हें जोड़कर एक महा ज्ञान-पंचायत में बदलने का ऐतिहासिक अवसर आ गया है।

जब कोई विशाल समुद्री जीव संहार/शिकार के लिए निकालता है तो एक प्रजाति की छोटी-छोटी मछलियां  मिलकर एक बड़ी आकृति बना लेती हैं जिसे देखकर विशाल समुद्री जीव अपना रास्ता बदल लेता है।  ऐसा ही कुछ समय आन पड़ा है। छोटी-छोटी ज्ञान-पंचायतों को बड़ी महा ज्ञान -पंचायतों में बदलकर सार्वजनिक दुनिया की मुख्यधारा को संचालित करने का ऐतिहासिक मौका लोकविद्या-समाज के सामने है।

ज्ञान पंचायतों से महापंचायत गढ़ने की समझ और प्रक्रिया
मोबाईल-इंटरनेट के आने से पुरानी व्यवस्थाएं ढहती नज़र आती हैं।  मॉल, सुपर कॉरिडोर, ई-मंडियां आदि देखकर यह महसूस होता है कि विकास हो रहा है।  लेकिन यह भी दिख  रहा है कि इसी विकास के चलते किसानी उजड़ रही है , कारीगरी ख़त्म हो रही है, छोटे-छोटे दुकानदार खदेड़े जा रहे हैं, आदिवासी घर-गाँव छोड़ने को मज़बूर किये जा  रहे हैं। इन लोकविद्या-समाजों के  उजड़ने का तरीका अगर हम गहराई से समझें तो हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि आधुनिक तकनीक और बाजार इन समाजों के ज्ञान को अपने तकनीक और व्यवस्थाओं के मार्फ़त कब्ज़े में ले रहा है और इन्हें गरीब बना  रहा है। जब छोटी-छोटी ज्ञान पंचायतों में लोग अपने ज्ञान पर हो रहे इन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हमलों पर बात करने लगेंगे तो एक बड़ी ज्ञान पंचायत की आवश्यकता खुद-ब-खुद नज़र आएगी। ये छोटी ज्ञान पंचायतें आज कई रूपों में होती देखी जा सकती हैं - भोगौलिक रूप में गाँव , बस्ती और बाज़ारों को केंद्र बनाती , सामाजिक रूपों में जातिगत, उत्पादन और सेवाकार्यों में , सांस्कृतिक रूपों में संसाधनों-कलाओं-सुविधाओं-तकनीकों के परस्पर आदान-प्रदान से आदि। ये सभी छोटी-छोटी ज्ञान-पंचायतें अपने ज्ञान का दावा कैसे करें इस पर सोचने का वक्त आ गया है। ये ज्ञान पंचायतें अब मनुष्य समाज के भविष्य का रास्ता बनाने का फैसला लें, इस का समय आ गया है।

इस दिशा  में कुछ कदम 
इंदौर में पिछले कुछ वर्षों में मालवा और निमाड़ के गांवों में ज्ञान पंचायतें की गयीं। बाज़ारों और बस्तियों में की गयीं।  इंदौर शहर के कपड़ा मिलों के बंद होने से विस्थापित कारीगरों के मोहल्लों में की गयीं। इन पंचायतों में लोकविद्या-समाज के स्त्री-पुरुषों ने हिस्सा लिया और अपने ज्ञान की शक्ति को पहचानने और उसके बल पर समाज में हो रहे परिवर्तनों पर लोकहित का पक्ष क्या हो इस पर सोचने की पहल की। ये ज्ञान-पंचायतें लोकविद्या के बल पर जीनेवालों का ज्ञान-आंदोलन नज़र आता है। शहर की कुछ महिलाओं ने कपडे की बण्डियाँ सिलकर उन्हें वितरित कर अपने ज्ञान का दावा पेश किया और इस ज्ञान-आंदोलन का हिस्सा बनीं। इन बण्डियों ने इस पहल को एक नया नाम दिया - ये ज्ञान-बण्डियां कही जा रही हैं। इन ज्ञान बण्डियों का लोकविद्या-समाज की ज्ञान-पंचायतों में वितरण ज्ञान-बण्ड कहा जा सकता है - यानि ज्ञान का दावा ठोकने का अभियान।इसके तहत यह भी विचार बना कि प्रत्येक अमावस को जिस चौराहे पर ज्ञान-पंचायत लगती है, उसे लोग ज्ञान-चौराहा कहना शुरू कर दें। अगर हम ठीक से इन पंचायतों को गढ़ते जाएं तो ये ज्ञान पंचायतें न सिर्फ लोकविद्या-समाज में एकता के सूत्र बुनेंगी बल्कि पूरे समाज को ज्ञान के उस पथ पर फिर ले आएँगी जो प्रकृति के साथ हिलमिलकर एक दूसरे की शक्ति को समृद्ध करता रहेगा।

संजीव दाजी
लोकविद्या समन्वय समूह, इंदौर 

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