Saturday, January 28, 2017

लोकविद्या का दावा पेश करो!

नीचे पुर्तगाल की कलाकार ग्राडा किलोम्बा की एक कविता है।  हमें लगा कि ये कविता आज की सार्वजनिक दुनिया से लोकविद्याधर-समाज को बहिष्कृत किये जाने की प्रक्रिया को सामने लाती है। कविता कोई रास्ता तो नहीं बताती लेकिन लोकविद्या-समाज के दर्शन को किस तरह तुच्छ और निकृष्ट करार देने का षड़यंत्र चल रहा है, इसे खोलती है और एक बार फिर इस विश्वास को पुख्ता करती है कि रास्ता तो लोकविद्या का दावा पेश करने से ही निकलेगा।

When they speak, it is scientific;     जब वे बोलते हैं तो वो वैज्ञानिक है
when we speak, it is unscientific.    हम बोलें, वो अवैज्ञानिक है।

When they speak, it is universal;     जब वे बोलें, तो वो विश्वव्यापी
when we speak, it is specific.           हम बोलें, सो विशिष्ट

When they speak, it is objective;     वे बोलें सो है वस्तुगत
when we speak, it is subjective.       हम बोलें वो आत्मपरक

When they speak, it is neutral;        वे बोलें सो तटस्थ
when we speak, it is personal.         हम बोलें तो व्यक्तिगत

When they speak, it is rational;       वे बोलें वो तर्कसंगत
when we speak, it is emotional.       हम बोलें, वो भावनात्मक

When they speak, it is impartial;     जब वे बोलें  तो है निष्पक्ष
when we speak, it is partial.             हम बोलें, वो पक्षधर

They have facts, we have opinions                     वे तथ्य आधारित , हम केवल दृष्टिकोण
They have knowledges, we have experiences.   वे ज्ञान पूर्ण, हम मात्र अनुभव आधारित

We are not dealing here with a             यह कोई शब्दों के 'शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ' 
'peaceful coexistence of words'             की बात नहीं है बल्कि 
                                                                 एक आक्रामक ऊँच-नीच की बात है। 
but rather with a violent hierarchy,     यही श्रेणीबद्धता तय करती है कि   
which defines                                          कौन बोल सकता है और 
WHO CAN SPEAK                               हम क्या बोल सकते हैं । 
and 
WHAT WE CAN SPEAK ABOUT. 


Grada Kilomba in 'Decolonizing Knowledge' (2016)

Wednesday, January 18, 2017

सूचना : वैजापुर और औरंगाबाद की कलाकारों की ज्ञान-पंचायत स्थगित

महाराष्ट्र में नगर और ज़िला पंचायतों के चुनावों के चलते वैजापुर और औरंगाबाद में 8, 9, और 10 फरवरी 2017 को होने वाली कलाकारों की ज्ञान-पंचायत स्थगित की जा रही है।  स्थानीय कार्यकर्ताओं से सलाह लेकर शीघ्र ही इस ज्ञान-पंचायत की अगली तारीखें घोषित की जाएँगी।  
आप इस ज्ञान पंचायत की तैयारियां जारी रखें।

विद्या आश्रम

मुम्बई में कला ज्ञान वार्ता

 हर युग में दुनिया को समझने और उसके पुनर्निर्माण की कई ज्ञान-धारायें होती रही हैं। यूँ कहे कि हर युग में अनेक ज्ञान धारायें एक साथ ज़िंदा रहती हैं और हर ज्ञान-धारा का अपना अलग विश्व-दृष्टिकोण होता है, यानि दुनिया को समझने और रचने का अपना अलग नजरिया होता है। ऐसा लगता है कि दुनिया की समझ और पुनर्रचना में समाज और लोग कभी भी केवल एक ज्ञान-धारा में बंधे नहीं रहते, बल्कि सभी ज्ञान धाराओं का सम्यक इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन पिछली एक-दो सदी से दुनिया भर के शासकों ने यह मान्यता स्थापित कर दी है कि दुनिया को समझने व पुनर्निर्माण के लिए साइंस ही एकमात्र जायज़ ज्ञान-धारा है, शेष सभी ज्ञान-धारायें या तो अधूरी है या निकृष्ट है। इसके चलते साइंस और साइंटिफिक नज़रिये को और इन पर आधारित/संचालित हर सामाजिक - आर्थिक - सांस्कृतिक क्रिया को 'विकास' कहा जा रहा है और शेष को पिछड़ा - अन्धविश्वास-अप्रासंगिक।  चूँकि साइंस और साईंटिफिक नज़रिये पर आधारित क्रियाओं के ही चलते आज प्रकृति का विनाश और बड़े पैमाने पर लोकविद्या-समाज की तबाही हुई है, ऐसे में यह सवाल जायज़ बनता है कि ज्ञान की अन्य धारायें कौन-कौन सी हैं और इनमें दुनिया को समझने और उसके पुनर्निर्माण के कौनसे रास्ते हैं?  विद्या आश्रम की खोज भी यही है।  
इसी खोज के चलते 8 जनवरी 2017 को मुम्बई में सिनेमा से जुड़े कुछ युवा कलाकारों से हमारी बातचीत हुई। इस बातचीत में वरुण ग्रोवर, नीरज घेवन , ध्रुव सहगल, कार्तिक कृष्णन और नीरजा सहस्रबुद्धे शामिल रहे। बाद में युवा डॉक्यूमेंट्री निर्देशक व कथा लेखक अभिव्यक्ति पाटिल से भी बात हुई। कार्तिक कृष्णन लेखक और अभिनेता हैं और फिल्मों तथा filtercopy, dicemedia नामक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के लिए लिखते हैं। छोटे-बड़े किरदारों का अभिनय भी करते हैं। ध्रुव सहगल लेखक, अभिनेता, निर्देशक हैं  और filtercopy और dicemedia नामक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के लिए लिखते हैं। छोटे-बड़े किरदारों का अभिनय भी करते हैं। Short films का निर्देशन किया है। वरुण ग्रोवर लेखक व गीतकार हैं तथा स्टैंड-अप कॉमेडी के शो करते हैं, पुरस्कार प्राप्त 'मसान' फिल्म के लेखक हैं और मसान, दम लगा के हईशा, आँखों देखी इत्यादि फिल्मों के गीतकार हैं। स्टैंड अप कॉमेडी  'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी' भी करते हैं। नीरज घेवन निर्देशक हैं और पुरस्कार प्राप्त मसान फिल्म का निर्देशन किया है। निर्देशक अनुराग कश्यप के साथ काम कर चुके हैं। अभिव्यक्ति पाटिल डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाती हैं।  ये सभी कलाकार अपने कलाकर्म के मार्फ़त समाज के पाखंड और विसंगतियों को ही सामने लाने के प्रयासों से जुड़े हैं। नीरजा सहस्रबुद्धे गणितज्ञ हैं, IIT मुम्बई में गणित में रिसर्च कर रही हैं और सामाजिक कार्यकर्त्ता व कला समीक्षक हैं। 
विद्या आश्रम की खोज के विषय को सुनील सहस्रबुद्धे  और चित्राजी ने इन कलाकारों के सामने रखा। और उनसे पूछा कि क्या कलाकारों के पास भी कोई ऐसा नजरिया है जो साइंस की सदारत में हो रही इस तबाही को चुनौती दे सके और सबकी खुशहाली का रास्ता बना सकें ? इस सवाल के साथ यह साफ किया कि लोगों की अथवा बृहत् समाज की दृष्टि लोकविद्या में निहित होती है। ' लोक ' के अर्थ पर भी चर्चा की गई।  कहा गया कि लोक कोई आण्विक व्यक्तियों का जमावड़ा अथवा समूह न होकर एक दुनिया का परिचायक है। लोक की आतंरिक बनावट होती है और व्यक्तियों, समूहों, विचारों, संगठनों, परिवर्तन और सञ्चालन की विभिन्न धाराओं यानि मोटे तौर पर कहे तो हर किस्म की सामाजिक अवस्थाओं, प्रक्रियाओं इत्यादि का एक आपसी ताना - बाना होता है, जो खुद सतत परिवर्तनशील होता है। सरल शब्दों में लोक ही समाज हैकला में इस लोक की सतत उपस्थिति है और कलाकार इसके प्रति सचेत और संवेदनशील भी होता ही है। सामान्य भाषा में यह कि कलाकार अपने दर्शकों, प्रेक्षकों और श्रोताओं को पारखी समझता है यानि ग्रहण करना और वापस देना यह गुण लोक में भी उतना ही है जितना कलाकार में होता है। इन अर्थों में कला और साइंस में बुनियादी फर्क हैं।  साइंस में मनुष्य का अलग से कोई स्थान नहीं है।  साइंस को इस बात का बड़ा गर्व है कि उसका दुनिया की बनावट का वर्णन प्रेक्षक यानि मनुष्य से स्वतंत्र है। और फिर साइंस खुद को मनुष्य के अच्छे-बुरे से निरपेक्ष बना लेता है, इसीलिए यह आवश्यक है कि दुनिया को समझने के लिए कला की दृष्टि सामने आये --ऐसी दृष्टियां सामने आएं जिनमें मनुष्य और प्रकृति का हित-अहित  बुनियादी स्तर पर समाहित हो।
जिस तरह लोकविद्या दृष्टिकोण एक ऐसा ज्ञान दृष्टिकोण है जो साइंस के दृष्टिकोण और वर्चस्व को चुनौती देता है, उसी तरह कला की दुनिया से ऐसे दृष्टिकोणों और दर्शनों की अपेक्षा है जो मानव समाज को आज की झूठी, पाखंडी और शोषण की व्यवस्थाओं से निकलने के रास्ते देखने में मदद करे।  
कार्तिक कृष्णन ने कहा कि जिस तरह साइंस के आधार पर दुनिया का एक विशिष्ट वर्णन बनता है कि दुनिया वस्तुओं और उनके गुणों से बनी है, उस तरह कला की कोई अपनी एकमात्र विशिष्ट दृष्टि हो ऐसा शायद नहीं हो सकता। तथापि कलाकार ऐसे विचारों और दर्शनों के निर्माण में महत्वपूर्ण भागीदार होना चाहिए। कला और दर्शन को साइंस की कसौटियों पर कसना ठीक नहीं है।  वे तो खुद समाज की नज़र के नीचे आकार लेते हैं।  उन्हें साइंस जैसी पारलौकिक दृष्टि से कुछ मिलता नहीं है।
वरुण ग्रोवर ने लोक संदर्भित विचार से सहमति जताई तथा लोक के लिये कला की भूमिका क्या है और दर्शन के स्तर पर क्या योगदान हो सकता है इस पर उन्हें और विचार करने की आवश्यकता है ऐसा कहा।
नीरज घेवन ने कहा कि वे अक्सर अपने अंदर के व्यक्ति और कलाकार के बीच संघर्ष में अपने को फंसा हुआ  पाते हैं। एक तरह से यह कलाकार और कला के बीच का संघर्ष है।
नीरजा ने यह सवाल उठाया कि अगर साइंस की मौलिक स्थापनाओं में मानवीय संवेदनाओं का स्थान गौण है तो साइंस के ज्ञान पर आधारित समाज में न्याय कैसे मिलेगा? क्योंकि न्याय और अन्याय की पहचान तो मानवीय संवेदना पर निर्भर है। यह सोचने की ज़रूरत है कि अन्यायपूर्ण स्थितियों पर पहल लेने का नजरिया तो उन्हीं दृष्टिकोणों में मिल सकता है जिनमें 'न्याय-अन्याय' को पहचानने की संवेदनायें निहित हों। निश्चित तौर पर कलाक्षेत्र से ऐसे नजरिये सामने लाने के प्रयास होने चाहिए।
चित्रा जी ने महाराष्ट्र के वैजापुर और औरंगाबाद में होने वाली कलाकारों की ज्ञान-पंचायत के विचार और कार्यक्रम की जानकारी रखी ।
कुछ घंटों की इस बातचीत के अंत में सब इस बात से सहमत थे कि इस विषय पर वार्ता को जारी रखा जाना चाहिए और आगे  मिलकर बात करने का मन बनाया।

विद्या आश्रम 

Wednesday, January 11, 2017

लोकविद्या-समाज की एकता के अगुआ

लोकाविद्या-समाज में एकता के धागों को बुनने की क्रियायें तेज़ होनी चाहिये। खेतों में काम करते किसान, कारखानों और कुटीर उद्योगों में काम करते कारीगर, जंगलों में रहते आदिवासी, पटरी-सडकों-बाज़ारों के छोटे-छोटे दुकानदार और घरों में कार्य करती स्त्रियां, ये सब अलग-अलग तरह के ज्ञानी हैं और अलग-अलग स्थानों पर कार्य करते हैं। इनके बीच एकता को देख पाना और उसे वास्तविक ठोस शक्ति बनाना एक चुनौती है। जब इनके बीच फैले ज्ञान का मज़बूत रिश्ता दिखाई देता है तो यह चुनौती संभव दिखाई देने लगती है । जब ये साफ़ दिखाई देने लगता है कि ये सब अपने ज्ञान यानि लोकविद्या के बल पर जीते हैं और इनके ज्ञान को पूँजी, राज्यसत्ता और विश्वविद्यालय की विद्या ने मिलकर ज़बरदस्ती निकृष्ट करार दिया है।  इनके बीच एकता के धागों को बुनने और इसका बृहत जाल बुनने में स्त्रियां आगे  बढ़ कर पहल ले सकती हैं।  कलाकार भी ऐसी ही क्षमता रखते हैं।  इसलिए स्त्री-समाज और कलाकारों समुदाय से हम ये अपील करते हैं कि वे अपनी इस महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इस कार्य को करने के  आयें  और लोकविद्या-समाज के आत्मबल और एकता को ऊंचाइयों तक ले जाएं। 
इन दोनों समाजों में ऐसी शक्तियों को देखने का आधार ये है कि  --

  1. इन दोनों समाजों के कार्यक्षेत्र में मानवीय संवेदना को प्रमुख स्थान प्राप्त है जिससे ये सहयोग की धाराओं को मज़बूती देते हैं।  इसके चलते तुरंत के लाभ के मुकाबले ये व्यापक हित और दूरगामी हितों को देख पाने की क्षमता रखते हैं।  न्याय-अन्याय और सही-गलत के विचार इनके लिए अधिक महत्त्व के  हो जाते हैं।  
  2.  कलाकार अपने कलाकार्य की कल्पना, प्रेरणा, संवाद और सम्प्रेषण के लिए सतत अपने सीमित दायरों को तोड़कर समाज के अन्य अंगों से रिश्ता बनाकर अपनी कला को नवीन बनाते हैं , व्यापक अर्थ देते हैं, नए रूपों और प्रकारों को गढ़ते हैं।  इसप्रकार वे सतत समाज में एक समन्वय की पद्धति को गढ़ते हैं। 
  3. स्त्रियाँ और कलाकार लोकविद्या-समाज के हर अंग में हैं।  गायन , वादन , नर्तन , काव्य, नाट्य , चित्र, शिल्प आदि कलाएं और उनके जानकार समाज के हर क्षेत्र और हर अंग में  देखे जाते हैं और ये धर्म, जाती, व्यवसाय, के दायरों से उठकर स्थानीयता को महत्व देते हैं और सभ्यता की समृद्धि के लिए ज्ञान की अलग-अलग धाराओं में समन्वय की क्रियाओं को रचते जाते हैं।    
8 से 10 फरवरी 2017 को महाराष्ट्र के वैजापुर और औरंगाबाद में हो रही कलाकारों की ज्ञान पंचायत इसी दिशा में एक कदम है।  

विद्या आश्रम